Course Type | Course Code | No. Of Credits |
---|---|---|
Foundation Core | SOL2HN307 | 4 |
Semester and Year Offered: MS 2021
Course Coordinator: Mrityunjay Tripathi
Email of course coordinator: mrityunjay[at]aud[dot]ac[dot]in
Pre-requisites: None
Course Objectives/Description:
इस पाठ्यक्रम के अध्ययन से विद्यार्थी आलोचना परंपरा का बोध विकसित कर सकेंगे। आधुनिक हिंदी रचना को समझने की विभिन्न पृष्ठभूमियों से वाकिफ हो सकेंगे। विद्यार्थी इस पाठ्यक्रम का अध्ययन करते हुए रचना को परखने के औज़ारों पर विचार-विमर्श करने के साथ ही हिंदी में रचना को समझने के ऐतिहासिक क्रम विकास से भी परिचित हो सकेंगे। साथ ही यह पाठ्यक्रम उनमें आलोचनात्मक विवेक विकसित करने का लक्ष्य रखता है जिसके सहारे वे 'जनता की चित्तवृत्तियों के संचित प्रतिबिम्ब' साहित्य का विश्लेषण कर सकेंगे।
Course Outcomes:
Brief description of modules/ Main modules:
माड्यूल-1
आधुनिकता में संक्रमण और आलोचना का प्रारम्भ
हिंदी आलोचना का उदय भी भारतेंदु युग [1850-1900] से ही माना जाता है। ब्रजभाषा में छिटपुट आलोचना के रूप तो मिलते हैं पर आलोचना के लिए गद्य का साहित्यिक भाषा के रूप में व्यवस्थित होना अनिवार्य था। खड़ी बोली के साहित्यिक गद्य-भाषा के रूप में व्यवस्थित होने की प्रक्रिया के साथ ही आलोचना विधा का जन्म हुआ। उस दौर में ब्रज के पुराने मूल्यों और राष्ट्र निर्माण की नयी परिस्थितियों के बीच एक रस्साकशी भी चल रही थी। शुरुआती आलोचना में 'देव बनाम बिहारी' विवाद जहां ब्रजभाषा के मूल्यों के प्रति झुकाव दिखाता है वहीं 'हिंदी नवरत्न' की बहस पुराने और नये काव्यमूल्यों में एक संगति खोजने का प्रयास है। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा रीतिवाद विरोध, भाषा के व्यवस्थापन और आलोचना के कार्यभारों के निर्माण की बहस भी इस दौर की आलोचना का हिस्सा है। तासी व ग्रियर्सन सरीखे पश्चिमी विद्वानों द्वारा लिखे गए इतिहासों में भी आलोचना के सूत्र मौजूद थे जो भारतीय आरम्भिक आलोचकों को प्रभावित कर रहे थे। इस माड्यूल में विद्यार्थी आलोचना के उदय की परिस्थितियों से परिचित होने के साथ ही उन दबाओं और प्रेरणाओं पर बहस भी कर सकेंगे, जिनसे आलोचना का प्रारम्भिक स्वरूप दृढ़ हुआ। इस माड्यूल में विद्यार्थी पद्मसिंह शर्मा, मिश्र बंधु, महावीर प्रसाद द्विवेदी व अन्य आलोचकों के विषय में अध्ययन करेंगे।
माड्यूल-2
शुक्ल युग व शुक्लोत्तर आलोचना
रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी में सैद्धांतिक आलोचना को व्यवस्थित और समृद्ध किया। उन्होंने व्यक्तिगत पसंद-नापसंद पर आधारित आलोचना को ख़ारिज करके साहित्य के वस्तुवादी दृष्टिकोण का विकास किया और साहित्यिक आलोचना के लिए साहित्येतर और उपयोगितावादी मानदंडों को अस्वीकार कर दिया। इतिहास लेखन, भूमिकाओं और निबंधों की व्यावहारिक आलोचना की प्रक्रिया में उन्होंने कुछ बीज शब्द गढ़े, जो आलोचनात्मक प्रतिमान के रूप में स्थापित हुए। ‘कवि की अंतर्वृति का सूक्ष्म विश्लेषण’, 'ह्रदय की मुक्तावस्था, ‘आनंद की साधनावस्था व सिद्धावस्था’, ‘साधारणीकरण’, ‘लोकमंगल’ आदि उनमें से कुछेक हैं। उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना में संगति है। वे सूरदास को आनंद की सिद्धावस्था का कवि मानते है तो तुलसीदास को साधनावस्था का और जायसी के काव्य में ‘प्रेम की पीर’ की व्यंजना को महत्त्व देते है। एवं प्रकार शुक्ल जी ने राष्ट्रीय जागरण की आवश्यकताओं के अनुरूप हिंदी आलोचना को विकसित परिमार्जित किया। शुक्लोतर हिंदी आलोचना का विकास शुक्ल जी मान्यताओं के साथ टकराहट के साथ शुरू हुआ। नन्द दुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ नगेन्द्र ने अलग-अलग विषयों पर शुक्ल जी के सैद्धांतिक मूल्यांकनों को चुनौती दी। नन्द दुलारे वाजपेयी का मतभेद रस की व्याख्या, लोकमंगल और छायावादी काव्य को लेकर था। उन्होंने शुक्ल जी की मान्यताओं को चुनौती देते हुए छायावाद को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया और काव्य-सौष्ठव को सर्वोपरि महत्त्व दिया। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल जी के इतिहास-बोध की सीमाओं को प्रश्नांकित करते हुए हिंदी साहित्य को एक समवेत, भारतीय चिंता के स्वाभाविक विकास के रूप में समझने का प्रयास और प्रस्ताव किया। 'कबीर' को प्रतिष्ठित करते हुए उन्होंने जाति और धर्म के प्रश्नों को आधुनिक भारतीय राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया में बाधा की तरह देखा। इस माड्यूल में विद्यार्थी इन आलोचकों के अतिरिक्त नगेंद्र और देवराज जैसे आलोचकों की मान्यताओं से भी परिचित हो सकेंगे।
माड्यूल- 3
प्रगतिशील व नयी आलोचना
प्रगतिशील लेखक संघ [1936] से प्रभावित आलोचकों ने हिंदी साहित्य को देखने की नयी दृष्टि विकसित की। प्रारम्भिक प्रगतिशील आलोचना ने कई सीमांत सैद्धांतिकीकरण किए पर रामविलास शर्मा ने इस दृष्टि को अधिक व्यवस्थित व सुसंगत किया। उन्होंने पुराने और नए साहित्य का अवगाहन करते हुए हिंदी नवजागरण व हिंदी जाति की अवधारणा प्रस्तुत की, नवजागरण को चरणों में बाँटा और साम्राज्यवाद विरोध तथा साम्राज्यवाद विरोध को साहित्य की कसौटी के रूप में स्थापित किया। उनकी अवधारणाओं पर परवर्ती मार्क्सवादी आलोचकों ने ज्ञानवर्धक बहसें की जिनमें नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय व वीर भारत तलवार आदि शामिल हैं। मार्क्सवादी आलोचना की इन बहसों से हिंदी आलोचना का भंडार समृद्ध हुआ। शीत युद्ध के चलते दुनिया भर के सांस्कृतिक परिदृश्य पर बने ध्रुवों की साक्षी हिंदी आलोचना भी रही। प्रगतिशील आलोचना के बरअक्स अज्ञेय व 'परिमल' समूह से जुड़े विजयदेव नारायण साही व लक्ष्मीकान्त वर्मा सरीखे आलोचकों ने 'व्यक्ति स्वातंत्र्य' को आधार बनाकर मार्क्सवादी आलोचना से रोचक बहसें संचालित कीं। इस माड्यूल में विद्यार्थी प्रगतिशील आलोचना और नयी समीक्षा के आलोचकों के विचारों, मूल्यों व रचना को व्याख्यायित करने की रणनीतियों के बारे में समझ विकसित कर सकेंगे।
माड्यूल-4
कथा आलोचना
हिंदी कथा-आलोचना का विकास काव्य-आलोचना के अपेक्षाकृत बाद में हुआ। शुरुआती काव्य केंद्रित आलोचना में छिटपुट कथा आलोचना भी देखी जा सकती है पर प्रगतिशील आलोचना ने समकालीन कथा साहित्य की समग्र आलोचना विकसित करने का प्रयत्न किया। इन प्रयासों में रामविलास शर्मा का प्रेमचंद और निराला के कथा साहित्य का विश्लेषण मूल्यवान है। नयी कविता के साथ विकसित नयी कहानी आंदोलन ने कथा-आलोचना को नयी ऊँचाइयाँ दीं। इस दौर में कथा-आलोचना को समृद्ध करते हुए नामवर सिंह की 'कहानी-नयी कहानी', कमलेश्वर की 'नयी कहानी की भूमिका', देवी शंकर अवस्थी सम्पादित 'नयी कहानी: संदर्भ और प्रकृति', 'विवेक के रंग' तथा 'विवेक के कुछ और रंग' जैसी पुस्तकों ने हिंदी कथा आलोचनाको यथार्थवाद, रूपवाद, विधा की उपादेयता व साहित्य के समाजशास्त्र जैसे प्रश्नों के तक विकसित किया। राजेंद्र यादव, गोपाल राय, सुरेंद्र चौधरी व विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे आलोचकों ने कथा आलोचना को आगे विकसित किया। इस माड्यूल में विद्यार्थी हिंदी कथा साहित्य की आलोचना को विस्तार से पढ़ते हुए काव्य-आलोचना से उसका आदान-प्रदान का सम्बंध देख सकेंगे व कथा आलोचना की अलग विकसित हुई ऐतिहासिक प्रक्रिया का विश्लेषण भी कर सकेंगे।
माड्यूल-5
रचनाकारों द्वारा आलोचना
हिंदी आलोचना के इतिहास का अध्ययन करते हुए हम देख पाते हैं कि समय-समय पर अपनी समकालीन आलोचना से असंतुष्ट रचनाकारों ने आलोचकों का दायित्व निर्वहन किया है। छायावादी कवियों पंत, निराला, प्रसाद, महादेवी के साथ प्रेमचंद जैसे कथाकारों ने भी विभिन्न लेखों के जरिये आमतौर पर अपने समय के लेखन व कभी-कभी साहित्यिक परंपरा के मूल्यांकन का दायित्व भी निभाया। दिनकर, अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा व मलयज जैसे रचनाकार-आलोचकों की आलोचना दृष्टियों का अध्ययन करते हुए विद्यार्थी इस माड्यूल में आलोचकों और रचनाकार-आलोचकों की प्राथमिकताओं, वैचारिकी व आलोचना-भाषा का तुलनात्मक अध्ययन कर सकेंगे। एक ही साहित्यिक पाठ को आलोचक और रचनाकार-आलोचक कैसे और किन कारणों से अलग-अलग पड़ते हैं, इन रणनीतियों का अध्ययन-विश्लेषण भी इस माड्यूल का हिस्सा होगा।
माड्यूल-6
दलित व स्त्री आलोचना
90 के दशक में हिंदी साहित्य के स्थापित आलोचना-मूल्यों को दलित और स्त्री रचानकारों ने नए सिए से चुनौती दी। उन्होंने पूरी रचना-परंपरा को जाति व जेंडर के सवालों के दायरे में बांधा और स्थापित मानकों पर प्रासंगिक प्रश्न उठाए। इन धाराओं ने न सिर्फ अतीत के साहित्य का पुनर्मूल्यांकन शुरू किया बल्कि अतीत के साहित्य पर अब तक चली आ रही आलोचनात्मक धारणाओं को भी प्रश्नांकित किया। इन धाराओं ने अपने समकालीन साहित्यिक लेखन की भी पड़ताल की। आलोचना में व्याप्त वर्चस्ववाद का विरोध करते हुए इन धाराओं ने समाज के हाशिए के तबक़ों की अभिव्यक्तियों के लिए नए प्रतिमानों की बहस उठायी। इन धाराओं ने अनुभव के सवाल को भी नए सिरे से उठाते हुए साहित्य की स्थापित परिभाषा को बदलने की माँग की। इस माड्यूल में विद्यार्थी इन प्रतिरोधी आलोचना धाराओं का अध्ययन करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि, निर्मला जैन, कँवल भारती, सुमन राजे, डॉ धर्मवीर, प्रभा खेतान सरीखे आलोचकों का अध्ययन कर सकेंगे।
Assessment Details with weights:
S. No. | Assessment | Weightage |
Class Assignment | 30 | |
Mid-semester Presentation | 30 | |
End Sem Exam | 40 |
Reading List:
अनिवार्य पाठ:
सहायक पाठ: